12 March 2011

चंद ज़िदा लाशों के बीच, एक मरी हुई लाश

मुंबई में जिदंगी को, कितना व्यस्त और बेदर्द बनना पड़ता है। यहां किसी की मौत भी दिल को नहीं झिंझोड़ पाती। ऐसा ही हुआ… एक दिन सुबह चंडीगढ़ जाना था, Flight पकड़नी थी... Building से नीचे उतरते ही देखा तो सामने एक लाश पड़ी थी… कोई मर गया था, या कोई मार के फेंक गया था… लेकिन आसपास किसी को कोई परवाह नहीं थी। इडली वाली इडली बेच रही थी, खाने वाले खा रहे थे, रिक्शे वाले अपने ग्राहकों का इंतज़ार कर रहे थे… और मैं मरने वाले की चिंता में नहीं, मिलने वाले Traffic की चिंता में चिंतित, रिक्शे में बैठकर चल दिया… लेकिन अपने दिल की भावनाओं को इस कविता में व्यक्त करता रहा, जब तक Airport नहीं आ गया… शायद आपको अच्छी लगे…!!


लाश पड़ी फुटपाथ पे, न ठीका न ठौर,
मुर्दो के इस शहर में, चलो मरा एक और !!

चलो मरा एक और किसी को कहां पड़ी है
धनवानों के बीच, कफन बिन लाश पड़ी है !!

लाश ही बनना था तो, क्यूं इस शहर में आया
ये सूरज खाऊ भवन, न देंगे तुझको छाया…!!

तेरी मैय्यत के पीछे, मैं क्यूं छोड़ूं धंधा…
खुदगर्जों के बीच में साला ढूंढ रहा है कंधा…!!

कंधे को तो यहां चूतिए, बाप तरस जाते हैं…
अब तो कंधे रोने के भी काम कहां आते हैं…!!

काम हुआ न जीते जी, वो अब मरने पे होगा
मुर्दाघर ही सही, शहर में तेरा घर तेा होगा…!!

तुझको भी इस शहर में वैसे, अच्छा मान मिला
जीने तक फुटपाथ मिला, मर के कब्रिस्तान मिला !!

अब जीने की ख्वाहिश हो, तो अपने घर जाना
आंचल, आंगन, ऊंगली, कंगन छोड़ यहां न आना…!!

पेट भले भर लेगा तू, पर दिल तो वहीं भरेगा…
वर्ना कहीं किसी कोने में, लावारिस ही मरेगा…II

© RD Tailang 2011.