04 July 2012

… और मेरा घर टूट गया



.. और मेरा घर टूट गया। टूटने से यहां मतलब है, कि हालातों के आगे, समय के आगे, और ख़ुद को उपयोगी बनाए रखने की मांग के आगे मेरा घर टूट गया…। जो लोग मेरे घर तैलंग भवन से परिचित नहीं है, उन्हें में बता दूं, कि मेरे शहर टीकमगढ़ मघ्यप्रदेश का तैलंग भवन यानि मेरा घर एक जाना माना ठिकाना था.. इसकी इमारत का कोई ऐतिहासिक महत्व नहीं था, लेकिन मज़ाल है कि रिक्शे वाले ने कभी पूछा हो, कि भाईसाब ये कहां पड़ता है। कई बार तो चिठ्ठियां सिर्फ Surname के दम पर ही इस घर में चलीं आती थीं.. अड़ौस पड़ौस के लाग अपने अपने पते पर, लिखते थे, "तैलंग भवन" के सामने, आगे या पीछे, ताकि ये सुनिश्चित हो जाए, कि उनकी चिठ्ठी सही जगह पहुंच जाएगी। Postman को भी बड़ी आसानी हो जाती थी, वो सारे मोहल्ले की चिठ्ठियां हमारे यहां डाल जाता था, क्योंकि लगभग हर चिठ्ठी पर लिखा होता था, तैलंग भवन के पास.. उसके बाद हमारी Duty हो जाती थी, कि वो चिठ्ठियां सही ठिकानों तक पहुंचा दें.. जिन घरों में जवान लड़कियां होती थीं, उनकी चिठ्ठियां पहुंचाने में हमें कुछ ज़्यादा ही दिलचस्पी रहती थी। मेरा वो घर अब शायद अपने अंतिम दिनों में है...

बुढ़ापे का परिणाम लगभग एक सा होता है.. चाहे बूढ़ा इंसान हो, या बूढ़ा मकान.. या तो वो टूट जाता है, या बिक जाता है… आखिर मेरा घर भी कब तक अपने आपको बचाए रखता, बूढ़ा जो हो चला था। बुढ़ापे को अक्सर अपनी उपयोगिता सिद्ध् करती रहनी पड़ती है, मेरा घर भी कई सालों से ये कोशिश कर रहा था, वो लगातार ये एहसास दिला रहा था, कि अभी भी वो उपयोगी है, वो बार बार बुलाता था, कि आओ देखो, मेरी मोटी मोटी दीवारों में आज भी वही गर्मी और प्यार है, जिसके बीच तुम पले बढ़े हो। लेकिन कहीं न कहीं घर ये जानता था, कि नए मकानों के लटकों झटकों में उसकी पारंपरिकता को कौन पूछेगा। उसे ये एहसास तो हो गया था, कि वो एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहा है..। मैं जब भी Mumbai से उस घर में जाता तो उसे मेरे आने की खुशी तो होती थी, लेकिन इस बात की आशा कतई नहीं होती थी, कि अब उसका भला होगा। क्योंकि अक्सर उड़ते उड़ते आवाज़ें उसकी दीवारों तक भी पहुंच जाती थीं, और दीवारों के तो कान होते ही है.. मैं अक्सर Mumbai के चिकने घरों और सुविधाओं की बातें करता था, अक्सर मुंह से निकल जाता था, कि अब इस घर में पैसा लगाना बेकार है.. तो वो सिर झुकाए चुपचाप कसाई के बकरे की तरह कातर निगाहों से देखता था, कि उसकी गर्दन पर छुरा कब पड़ेगा। वो अब अपने आपको भी देखने लगा था.. उसकी दीवारों में POP की चिकनई नहीं थी, उसके दरवाज़े खुलते बंद करते समय आवाज़ करते थे, कोई कमरा ऊंचा था तो कोई नीचा.. और दरवाजों की चौखटें इतनी नीची की दिन में एक दो बार सिर फूटना तो आम बात थी.. लेकिन फिर भी जीवन की आशा तो मरते हुए इंसान के मन में भी होती है। उसे इस बात का एहसास था, कि वो हमें याद दिलाने में कामयाब हो जाएगा, कि उसके पास आज भी वो बड़ा आंगन है, जहां घर के बच्चे खेला करते थे, औरतें शाम को हंसी ठिठोली किया करती थी, और जहां बिना मौकों पर भी हारमोनियम और ढोलक बज उठते थे.. जहां सारा परिवार अपने सुख दुख बांटता था, एकदूसरे के घर जाने से पहले पूछना नहीं पड़ता था.. उसे पता था कि उसका दिल बड़ा है, और शायद इसी दम पर वो अपनी साख बचाए रख सकता है और हमें अपने महत्वपूर्ण होने का एहसास दिला सकता है... लेकिन आजकल जब इंसानों के दिल की कोई कीमत नहीं तो मकानों का दिल कौन देखता है। मेरा घर ये नहीं समझ पा रहा था, कि यही जीवन है, हम जिन बुज़ुर्गों की सीख पर चलकर बड़े होते हैं, बाद में उन्ही सीखों में हमें रूढ़ीवादिता और पिछड़ापन नज़र आने लगता है.. ये समय का फेर है, इससे भला आजतक कोई बचा है..?

जब मेरा घर बना था, तब इस सोच के लोग थे, कि घर की आधी रोटी भली.. इसीलिए मेरे घर में भी रोनक रहती थी, छतों से लेकर सीढ़ियों पर कोई न कोई मौजूद होता ही था। हर उम्र के, हर स्वाभाव के, हर तबके के घर के सदस्य.. लेकिन समय का ऐसा फेर हुआ कि मैं मुंबई चला आया, और देखते देखते घर की आधी भली की सोच मिट गई, लोगों के लिए रास्ता खुल गया, उन्हें बड़े घर में घुटन होने लगी, शहर के छोटे मकानों में तरक्की का एहसास होने लगा.. और देखते देखते भीड़भाड़ वाला घर खाली होता गया.. और हालत ये हुए, कि उस घर में कमरे ज़्यादा और रहने वाले कम हो गए.. मोहल्ले की रोनक हमारा घर अब शाम होते ही एक बड़ी अंधेरी छाया नज़र आने लगा.. 

लोग कहते हैं, कि मेरे घर को किसी की नज़र लग गई। आज वो खाली है, कोई रहने को तैयार नहीं.. नई पीढ़ी में कुछ एक को छोड़कर तो बाकी किसी को उसके अंदर के रास्ते भी पता नहीं होंगे..। अब ये तो पता नहीं किसी की नज़र लगी या नहीं, लेकिन ये बात भी है, कि हमने अपने घर की कभी नज़र भी नहीं उतारी.. हो सकता है, जब किसी की नज़र लग गई हो जब जब वहां साहित्यकार गर्व के साथ बैठकर अपनी रचनाएं पढ़ते थे, संगीत की महफिलें, कवि गोष्ठियां, चर्चाएं, हंसी, ठहाके तैलंग भवन के अंदर से निकल निकल कर आसपास के घरों को मुंह चिड़ाते थे.. एक तरह से टीकमगढ़ शहर का सांस्कृतिक अड्डा था, लोग सलाहें लेने आते थे, शहर में कोई नामी कलाकार आता था, तो उसे अपने आप हमारे घर लाया जाता था, जैसे मेरा घर किसी राजा की चौखट हो, जहां पर सलाम करके जाना ज़रूरी है... लेकिन राजा की चौखट न सही, लेकिन राजगुरू का घर था तैलंग भवन। हम पीढ़ियों से औरछा राज्य के राजवंश के राजगुरू थे… जी हां वही ओरछा जहां के महलों के सामने Katrina Kaif Slice का Juice पीती नज़र आती हैं, उसी राज्य के राजा हमारे यहां सर झुकाकर आते थे, चप्पले पहन कर आना राजा को भी Allowed नहीं था.. मगर वक्त ने राजाओं को खत्म कर दिया फिर हमारे इस अदने से घर की क्या बिसात..

ये शेर तो आप सब ने सुने ही होंगे..

याद रख, सिकंदर के हौसले तो आली थे
जब गया था दुनिया से दोनों हाथ खाली थे

अब न वो सिकंदर है और न उसके साथी है
जंगजू न पोरस है और न उसके हाथी है

कल जो तनके चलते थे अपनी शान-ओ-शौकत पर
शम्मा तक नहीं जलती आज उनकी तुर्बत पर

ऐसा दुनिया में पहली बार नहीं हो रहा था, कि हमारा घर हमसे दूर हो रहा हो.. दरअसल ऐसा सारे देश में ही हुआ है, या हो रहा है, पुराने घर अब सभी से दूर हो रहे हैं.. क्योंकि अब पुराने घर, आंगन, तुलसी का पौधा, आम का पेड़, हमें सुकून तो देते हैं, लेकिन जीवन की सुविधाएं, सुरक्षा और पैसा नहीं दे पाते.. और सुकून से दिल तो बहल सकता है, लेकिन घर नहीं चलता.. इसलिए सभी अपने छोटे शहर के बड़े घरों से दूर होते होते, बड़े शहर के छोटे घरों में आने को मजबूर हो गए। और बड़े घर इस बदलाव पर हैरानी से हमें देखते हैं, कि न जाने कहां कब क्या हो गया...। हमारे घर के दूर होने पर भले ही हमें दुख लगे, लेकिन उसका भविष्य हमेशा की तरह उज्जवल ही है। आज उसमें रहने वाले वाशिंदों का भले ही पलायन हुआ हो, और वो दूसरे शहरों में बस गए हों, लेकिन सबका भला ही हुआ है। और ये ज़रूरी था, गतिशील होना विकास की निशानी है, क्योंकि गति में ही प्रगति है। बहता पानी हमेशा अच्छा होता है, रूका पानी सड़ जाता है, खून जब तक धमनियों में बहता रहता है, जीवन चलता रहता है, रूक जाता है, तो उस अंग को खराब कर देता है.. एक फूल गिरता है तो चार नए खिलते हैं, प्राचीन को नवीन के लिए जगह बनानी ही पड़ती है। आज भले ही तैलंग भवन में रहने वाले वाशिंदे बदल रहे हों, और वो इसे इसके मौजूदा हाल में रखें या फिर पुनर्निमाण करें, तैलंग भवन को एक नया रूप मिलेगा, उसमें नई उर्जा का संचार होगा..। हर व्यक्ति के साथ की एक समय सीमा होती है, हमारे अपने भी कुछ समय बाद हमसे बिछड़ जाते हैं, इसी तरह जीवन चलता है, और इसी तरह तैलंग भवन भी चलेगा, भले ही उसका स्वरूप दूसरा हो, नाम भी दूसरा हो, लेकिन उसकी आत्मा वही रहेगी.. मैंने कौन बनेगा करोड़पति के लिए कुछ पंक्तियां लिखीं थी, जो मैं अपने घर को समर्पित करना चाहता हूं –

अपना घर अपने जीवन का आधार है, जिंदगी भर की मेहनत का आभार है, बरसों की उम्मीदों का आकार है,
घर की हर चीज़ में यादों का बसेरा होता है, बुर्जुगों की दुआओं का डेरा होता है,
और अपने घर में एहससास भी वैसा होता है, जैसे कोई बच्चा अपनी मां की गोद में आ के सोता है…

मेरा घर जिसके साथ भी रहे, हमेशा आबाद रहे..

RD Tailang
© Sequin Entertainment Pvt. Ltd 2012.
Mumbai

  

4 comments:

  1. Beautiful...haven't read something so wonderful in a long time...

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    1. Thank you Mona.. I never expected you here.. this is the place where i try to write "Dil se".. and hope.. ki yeh "dil tak" pahunche..

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  2. And now it makes me think of my ancestral house, and home to my father's generation. Big, proud filled with memories and anachronistic now! As usual, loved this piece too!

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    1. Thank you Reshu.. actually it is real "kahani ghar ghar ki".. I still feel my house is calling me everyday and asking me about my well being and saying "Shahar main kuchh taqleef ho toh yahan aa jao.." just like our dadaji or old family member.. hum sabka ek ghar kahin na kahin intezar kar raha hai..

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